बात शायद 50-55 वर्ष पहले की है। उस समय राजस्थान के प्रायः प्रत्येक गाँव में किसी वट या पीपल के वृक्ष पर या किसी सूने कुएँ की सारण (ढलान) में भूत-प्रेत या जिन्न का निवास माना जाता था। गाँव में बहुत से ऐसे व्यक्ति मिल जाते थे, जो कसम खाकर कहते कि अपनी आँखों से एक रात अमुक स्थान पर सफेद कपड़े पहने बड़े-बड़े पैरों वाले, वृक्ष की-सी ऊँचाई के एक भूत को देखा था।
भूत-भूतनी के सिवाय प्रत्येक कस्बे या गाँव में एक-दो डाकी या डाकिन भी होते थे। मुझे अपने गाँव की एक घटना अब भी अच्छी तरह याद है। हरखू की माँ वहाँ डाकिन के रूप में प्रसिद्ध थी। उस समय वह प्रौढ़ावस्था में थी। स्वास्थ्य भी साधारणतया ठीक था, परंतु लोग उससे डरते थे, इसलिये किसी घर में उसे काम-काज मिलता नहीं था। कमाने वाला कोई था नहीं, भीख माँगकर किसी तरह अपना निर्वाह करती थी। जब मोहल्ले में आती तो सारे घरों में पहले से ही उसके आने की खबर फैल जाती। स्त्रियाँ बच्चों को छिपा लेतीं और घर के दरवाजे पर से ही जल्दी से अनाज या रोटी देकर उसे वापस कर देतीं। हम बच्चे सहमे हुए से उसे जाते हुए पीछे से देखने का प्रयत्न करते।
उन दिनों गाँवों में डाक्टर-वैद्य तो थे नहीं। बच्चों को 'डब्बा' या अन्य किसी प्रकार की बीमारी होने पर हरखू की माँ पर सन्देह जाता था।
दो-तीन सयाने व्यक्ति जाकर उसका थूक लाकर बच्चों पर छिड़कते थे। उनमें से बहुत-से तो अपने-आप ठीक हो जाते, मगर कुछ मर जाते। मरने वालों की जिम्मेदार हरखू की माँ समझी जाती। हरखू की माँ ने भी अपमानित जीवन से एक प्रकार का समझौता-सा कर लिया था; क्योंकि जीवन-यापन करने के लिये किसी-न-किसी प्रकार से अन्न-वस्त्र की व्यवस्था करना तो जरूरी था ही। कई वर्षों बाद अपने गाँव गया था। दूसरी बातों के साथ-साथ हरखू की माँ की भी चर्चा आयी तो पता लगा कि वह बहुत दिनों से बीमार है, इसलिये भिक्षा के लिये नहीं आ पाती। उसे नजदीक से जानने की जिज्ञासा तो बहुत वर्षों से थी ही और अब मेरे लिये उसका कोई भय भी नहीं रह गया था, इसलिये लोगों के मना करने पर भी एक मित्र के साथ उसके घर मिलने के लिये गया।
वह गाँव से बाहर एक झोंपड़ी में रहती थी। वहाँ जाकर देखा कि एक टूटी-सी खाट पर वह लेटी हुई थी। दो-चार मिट्टी के और अल्युमिनियम के बरतन इधर-उधर बिखरे हुए पड़े थे। कई दिनों से शायद सफाई नहीं की गयी थी, इसलिये कूड़ा-करकट भी फैला पड़ा था।
दो-तीन बार आवाज़ देने पर वह उठी और फटी-फटी आँखों से हमें देखने लगी। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई उसे भी पूछने के लिये आ सकता है। दुखी मनुष्य को जब सान्त्वना मिलती है तो वह द्रवित हो जाता है। हमें देखकर वह रोने लगी। कुछ कहना चाहती थी, परंतु हिचकियाँ बँध गयी; अतः कह न सकी। फ्लास्क में चाय ले गये थे, एक बड़े कटोरे में पीने को दी, सब पी गयी। शायद बहुत भूखी-प्यासी थी।
मैंने अपने मित्र को मोहल्ले में से किसी एक मजदूर को लाने के लिये भेजा, परंतु कोई भी उसके पास आने को तैयार नहीं हुआ। मेरे साथ कलकत्ते से एक नौकर आया हुआ था। उसे साथ लेकर मैं शाम को पुनः उसके यहाँ गया, साथ में गरम दूध, दलिया तथा साधारण ताकत की औषधि ले गया था। जितनी राहत उसे पथ्य और दवा से नहीं मिली, शायद उससे ज्यादा इस बात से मिली कि उस उपेक्षिता के प्रति भी किसी की सहानुभूति है।
दूसरे दिन समझा-बुझा कर एक वैद्य जी को ले गया और उसकी चिकित्सा शुरू की। उचित पथ्य और दवा की समुचित व्यवस्था से थोड़े दिनों में ही वह स्वस्थ हो गयी। फिर तो कई बार वहाँ गया, उसके प्रति एक आत्मीयता-सी हो गयी थी। मन में एक कचोट-सी भी थी कि इस असहाय के साथ अन्धविश्वास के वशीभूत होकर समाज और गाँव के लोगों ने बहुत बड़ा अन्याय किया है।
एक दिन मैंने कहा, 'हरखू की माँ! मैं तुम्हारे बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करना चाहता हूँ। अगर बुरा न मानो तो मुझे अपने जीवन की सारी बातें बताओ।' थोड़ी-सी हिचकिचाहट के बाद जो इतिहास उसने बताया, वह इस प्रकार है-
'जब मैं 13 वर्ष की थी, तब अमुक गाँव के ठाकुर साहब की बाई-सा के विवाह में दायजे में दे दी गयी थी। उनकी ससुराल में आकर मेरा विवाह वहाँ के एक दरोगा के लड़के के साथ कर दिया गया। हम दोनों पति-पत्नी रावले की चाकरी में रहते थे। साधारण खाने-पहनने को मिल जाता था। पति कुँवर साहब का काम करते और मैं कुँवरानी जी का। कुछ वर्षों बाद हमें एक बच्चा हुआ, प्यार का नाम रखा गया हरखू ! एक बार गाँव में हैजा फैला। मेरा पति भी इससे अछूता न बचा। गाँव का एक मात्र वैद्य दूसरे बड़े लोगों की चिकित्सा में लगा हुआ था। बहुत आरजू-मिन्नत करने पर भी वह मेरे पति को देखने नहीं आया और दवा-दारू के अभाव में वह मर गया। रावले में खबर भेजी गयी, परंतु वहाँ से कोई भी श्मशान तक साथ जाने के लिये नहीं आया; क्योंकि हैजे के रोग से मृत व्यक्ति की छूत लग जाने का डर जो था। मैंने दो-चार पड़ोसियों की सहायता से किसी प्रकार उसका दाह-संस्कार किया ! घर आने पर बच्चे को भी दस्त और उल्टी होते हुए पाया। दवा के नाम पर भगवान का नाम लेकर प्याज का रस देने की तैयारी कर ही रही थी कि ठाकुर साहब के यहाँ से बुलावा आ गया। बहुत रोने-गिड़गिड़ाने पर भी छुटकारा नहीं मिला। कुँवरानी जी की चोटी-कंघी करके जब मैं भागती हुई घर लौटी तो मेरा हरखू सारे दुःखों को भूलकर सदा के लिये सोया हुआ मिला। इसके बाद मैं पागल-सी रहने लगी, रात-दिन हरखू को पुकारती रहती। थोड़े दिनों के बाद ही फिर से मुझे रावले के काम पर जाना पड़ा। हम दरोगे एक प्रकार से ठाकुरों के ज़र-खरीद गुलाम की तरह होते थे।
संयोग से उन्हीं दिनों कुँवरानी जी के दोनों पुत्र मर गये। मुझे कुलक्षणी समझकर वहाँ से निकाल दिया गया और फिर मैं इस कस्बे में आकर मेहनत-मजदूरी करके निर्वाह करने लगी। मुझे बच्चों से कुछ इस प्रकार का मोह हो गया था कि बिना मेहनताने के ही मोहल्ले के बच्चों का काम करती रहती, उन सब में मुझे अपने हरखू की झलक मिलती थी।
शायद पूर्व जन्म में मैंने बड़े पाप किये थे। एक दिन एक बच्चे को मैं उसकी माँ से लाकर खेला रही थी कि थोड़ी देर में ही कमेड़ा आकर उसका देहान्त हो गया। उसके बाद तो मैं गाँव में डाकिन के नाम से बदनाम हो गयी। औरतें मुझे देखते ही बच्चों को छिपा लेती थीं। गाँव के बड़े बच्चे पीछे से पत्थर मारकर चिल्लाते - 'हरखू की माँ डाकिन है।' पहले तो लोगों के घर से कुछ मिल जाता था, अब वह भी बन्द हो गया। पचास वर्ष हो गये, तब से भीख माँग कर ही किसी प्रकार अपना यह पापी पेट पालती हूँ, परंतु आज भी जब मैं किसी छोटे बच्चे को देखती हूँ तो मुझे अपना हरखू याद आ जाता है।'
उसने खाट के नीचे से टीन का एक गोल डिब्बा निकाला और उसमें से गोट-लगे हुए टोपी-कुरते निकालकर दिखाने लगी। वे सब उसके हरखू के थे। दो छोटे-छोटे चाँदी के कड़े और एक हनुमानजी की मूर्ति भी थी। यह सब दिखाते दिखाते वह अपने-आपको और ज्यादा न रोक सकी। उसके धीरज का बाँध टूट गया और आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। बड़े जोर से रोते हुए कहने लगी, 'परमात्मा जानता है, मैंने गाँव में किसी का कोई नुकसान नहीं किया। फिर भी पिछले 50 वर्षों से इन लोगों ने मुझे बदनाम कर रखा है और मेरा इतना बड़ा अपमान करते आ रहे हैं, अब और सहा नहीं जाता। दुनिया में इतने लोग मरते हैं, पर मुझ अभागिन को मौत भी नहीं आती।'
बहुत भारी मन से मैं उस दिन उसे सान्त्वना देकर घर लौटा। दो-तीन दिन बाद ही आवश्यक कार्य से मुझे अपने गाँव से रवाना होना पड़ा। कलकत्ता आकर अनेक प्रकार के झंझटों में फँस कर हरखू की माँ की बात भूल गया। तीन-चार वर्ष के बाद मैं पुनः गाँव गया, तब पता चला कि हरखू की माँ की गाँव के लोगों ने दिन-दहाड़े हत्या कर दी थी।
घटना इस प्रकार बतायी गयी कि एक दिन गाँव के एक प्रतिष्ठित सेठ का बच्चा बीमार हो गया। संयोग से इसके पहले दिन हरखू की माँ उनके यहाँ रोटी लेने गयी थी, अतः उस पर उनका शक जाना स्वाभाविक था। चार-पाँच व्यक्ति उसके यहाँ गये और एक कटोरी में थूकने के लिये कहा। उस दिन उसे भी कुछ इस प्रकार की जिद्द हो गयी कि वह थूकने को तैयार ही नहीं हुई।
निरीह बुढ़िया का थूक निकालने के लिये उनमें से दो-तीन व्यक्तियों ने जोर से उसका गला दबाया। बीमार और कमजोर वृद्धा भला कहाँ इतना जोर-जुल्म सह पाती ? झाग और थूक के साथ-साथ उसके प्राण भी निकल गये।
घर आकर देखा गया कि वह बच्चा भला-चंगा खेल रहा है, परंतु गाँव के 'समझदार' लोगों की धारणा थी कि अगर उससे जबरन थूक नहीं लिया जाता तो शायद बच्चे की जान नहीं बचती। डॉक्टर और पुलिस को किसी प्रकार राजी करके मामला दबा दिया गया। उस गरीब औरत के लिये किसको पड़ी थी कि सेठ जी से बैर मोल लेता ?
थोड़े दिनों के बाद सेठ जी के यहाँ बच्चे के स्वास्थ्य-लाभ की खुशी में हनुमान जी के प्रसाद का भोज हुआ। गाँव के पचासों व्यक्ति दाल-चूरमा खाते हुए हरखू की माँ की मौत के बारे में इस प्रकार से बातें कर रहे थे, जैसे वह एक साधारण-सी घटना थी। मैं भी निमन्त्रण में तो गया था, परंतु किसी प्रकार भी भोज में सम्मिलित न हो सका। मुझे वहाँ की हवा में उस वृद्धा के अन्त समय की चीख-पुकार सुनायी पड़ रही थी।